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हिंदी कविता : गांव की यादें // गौरव झा

  GAURAV JHA  ( Journalist, Writer & Columnist ) चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार  गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। सिखता आ रहा हूँ,बहुत कुछ गाँवों में रहता हूँ,हर वकत बुजुर्गो के छाँवों में। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार गाँव की  याद आती है बहुत मेरे यार।। मिलता था माँ का प्यार सदा गाँवों में जन्नत मिला है  सदा  माँ के पाँवों में।। गाँव में  मिलता बहुत लोगों का  प्यार, शहर आते बहुत कुछ खो दिया मेरे यार। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार, गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। #  <script data-ad-client="ca-pub-6937823604682678" async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>

लेख-- बाल साहित्य पर ध्यान देने की जरूरत।

सबसे बड़ी बाधा उसके प्रसार की है, उसका बालकों तक पर्याप्त रूप में न पहुंचने पाने की है। उनके अभिरुचि से दूर होने की है। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाने की है। कई बार उनको कोरा उपदेश देने की है और उनके देर रात तक टेलीविजन के विविध चैलनों, कम्प्यूटर गेमों से चिपके रहने की है।
            बाल साहित्य का उत्कृष्ट सृजन जितना महत्वपूर्ण है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है बालकों तक प्रचार व प्रसार। बालकों की पाठ्यक्रम की व्यस्त दिनचर्या के मध्य उनके लिए बाल साहित्य हेतु पर्याप्त समय निकालना कठिन कार्य है। आवश्यकता है उनमें पठन-पाठन के साथ-साथ बाल साहित्य के प्रति अभिरुचि जाग्रत करने की। अन्यथा छपने वाली रंग-बिरंगी पुस्तकों, कविता-कहानियों का कोई औचित्य नहीं रह जायेगा।
            आजकल बाल साहित्य पढ़ने वालों की संख्या न्यून है। एक तो बालकों पर पाठ्यक्रम का बोझ है। ऊपर से अभिभावक व शिक्षक अधिकाधिक अपेक्षायें करते हैं। उनकी अभिरुचि बाल साहित्य की ओर मोड़ने में विशेष रुचि नहीं दिखाते। दूसरी बात यह भी है कि बालकों की अभिरुचि का उनका स्वस्थ मनोरंजन करने वाला बाल साहित्य उन तक पहुंच नहीं पा रहा है। कहीं किताबें महंगी हैं कहीं उपलब्ध नहीं हैं और कहीं-कहीं इस मद हेतु अभिभावकों की जेबें छोटी हैं। परिणामतः पाठ्यक्रम के अतिरिक्त का समय वे क्रिकेट जैसे खेल टी.वी. देखकर बिताते हैं।
                 ऐसे में आवश्यक है कि बाल साहित्य को राष्ट्रीय स्तर पर महत्व देने के साथ-साथ उसके प्रचार-प्रसार पर भी ध्यान दिया जाएं बाल साहित्य की पत्रिकाएं शहरों से बाहर निकल कर गांवों के बच्चों तक भी पहुंचें। वह एक-दो इनी गिनी पत्रिकाओं के नामों से आगे बढ़कर कम से कम पांच-छः पत्रिकाओं को जानकर पढ़ सके। उनकी अन्य आदतों की भांति पत्र-पत्रिकाएं खरीदकर पढ़ने-पढ़ाने की आदत पड़ जाए। श्रृव्य-दृश्य साधन भी इस कार्य में सहयोगी की भूमिका निभायें। बाल साहित्यकार व बाल साहित्य कल्याण में संलग्न संस्थायें भी सृजन कार्य, सम्मान , पुरस्कारों से आगे बढ़कर प्रचार-प्रसार पर ध्यान दें। सरकारें-गैर सरकारी संगठन यह कार्य विद्यालयों, सामुदायिक केन्द्रों, मेलों के माध्यम से सुगमतापूर्वक व शीघ्र कर सकते हैं।
           बाल साहित्यकारों को भी चाहिए कि वह बालसृजन करते समय शहर-गांव सभी स्तर के बालकों की अभिरुचियों, आवश्यकताओं व परिवेश का ध्यान रखें। राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं, पात्रों पर्वों, त्यौहारों, नृत्य, गायन, आदर्शों, परम्पराओं व मान्यताओं को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ढालकर रेखांकित करें। अधिकाधिक बालकों की अभिरुचि के अनुसार साहित्य का सृजन हो। महानगर से लेकर छोटे गांव तक में बालक को कुछ न कुछ अपना दिखे। उस पर कोई विशेष धारा न थोपी जाये। यही नहीं उनके पास श्रेष्ठ बाल साहित्य का चयन कर पढ़ने का पर्याप्त विकल्प हो, जिससे पाठ्यक्रम के दबाव के बाद भी वे बाल साहित्य का महत्व स्वीकार करें। और अधिक न सही थोड़ा समय तो प्रतिदिन इसके लिए निकाल सकें।
                                     -----आपका कलमकार गौरव झा

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