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Gaurav Jha is a signature of Kalam who is a litterateur as well as a skilled speaker, leader, stage operator and journalist. His poems, articles, memoirs, story are being published in many newspapers and magazines all over the country. At a very young age, on the basis of his authorship, quality,ability.he has made his different fame and his identity quite different in the country. They have a different identity across the country.
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लेख -- संस्कृत का महत्व
दस वर्ष से भी अधिक पहले की बात है।किसी एक साधारण आजीविका वाले जर्मन पादरी के परिवार में उनकी आठ संतानों में सबसे होनहार अल्पवयस्क बालक ने अपने विद्यार्थी जीवन में एक दिन प्राध्यापिक लासेन को एक नयी भाषा संस्कृत और साहित्य के विषय में भाषण देते सुना।
उस समय संस्कृत भाषा साहित्य यूरोपीय विद्वानों के लिए बिल्कुल ही नया था। इन भाषणों को सुनने में दाम तो लगते नहीं थे,क्योंकि अभी भी किसी व्यक्ति के लिए यूरोप के किसी विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाकर रूपया कमाना असम्भव है,यदि विश्वविद्यालय उनको इस कार्य के लिए विशेष सहायता प्रदान करता हो तो वह दूसरी बात है।
प्राध्यापक लासेन संस्कृत के अग्रणी वीरहृदय जर्मन पंडितों के लगभग अंतिम प्रतिनिधि थे।ये पंडित लोग वास्तव में वीर पुरूष थे क्योंकि विद्या के प्रति निस्वार्थ आस्था,प्रेम,पवित्रता,और ईमानदारी के अतिरिक्त उस समय जर्मन विद्वानों के भारतीय साहित्य की ओर आकृष्ट होने का कौन-सा कारण हो सकता था।विद्वान लब्धप्रतिष्ठित प्राध्यापक लासेन एक दिन कालिदास की द्वारा रचित अभिग्यान शाकुन्तलम् के एक अध्याय की व्याख्या कर रहे थे और उस दिन हमारा यह युवक विद्यार्थी जिस ध्यान और उत्सुकता के साथ उनके द्वारा बतलाई गयी व्याख्या सुन रहा था,उतना तन्मय श्रोता शायद वहां और कोई न था।निश्चिततौर पर व्याख्या का विषय अवश्य ही अत्यन्त हृदयग्राही एवं अद्भूत प्रतीत हो रहा होगा।पर सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि एक यूरोपीय व्यक्ति के अनाभ्यस्त कर लेने पर भी इस बालक को उन शब्दों ने मंत्रमुग्ध-सा कर दिया था।
वह अपने घर गया,किन्तु उसने जो कुछ सुना था,उसे वह रात में नींद में भी भूल न सका।उसने मानो इतने दिनों के अग्यात ,अपरिचित देश का सहसा दर्शन पा लिया हो,और उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो वह देश उसके देखे हुए अन्य सब देशों की अपेक्षा अधिक उज्ज्वल रंग-बिरंगे से चित्रित है तथा उसने उसमें जैसी मोहिनी शक्ति पायी,वैसा उसके युवक हृदय ने और कभी भी अनुभव नहीं किया था।
किंतु वहां बीच में संस्कृत भाषा का यह झंझट आ खड़ा हुआ।अधिकांश यूरोपीय विद्वानों ने तो उस समय संस्कृत भाषा का नाम ही नहीं सुना था--इससे अर्थप्राप्ति की बात तो दूर रही।मैंनै पहले ही कहा था कि संस्कृत भाषा का विद्वान होकर अथोपार्जन पश्चिमी देशों में अभी एक असम्भव कार्य है।फिर भी हमारे इस युवक को संस्कृत सीखने की इच्छा प्रबल हो उठी।
यह बड़े दुख की बात है,हम आधुनिक भारतीयों के लिए यह समझना अत्यन्त कठिन हो गया है कि विद्या के लिए ही विद्याभ्यास किस प्रकार हो सकता है।फिर भी नवद्वीप,वाराणसी एवं भारत के अन्यान्य स्थानों के पंडितों में विशेषकर संन्यासियों में आज भी ऐसे वृद्ध और युवक देख सकते हैं,जो विद्या के लिए भी विद्याभ्यास में रत हैं--ग्यान के लिए ही ग्यानलाभ की तृष्णा में उन्मत हैं।
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