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हिंदी कविता : गांव की यादें // गौरव झा

  GAURAV JHA  ( Journalist, Writer & Columnist ) चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार  गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। सिखता आ रहा हूँ,बहुत कुछ गाँवों में रहता हूँ,हर वकत बुजुर्गो के छाँवों में। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार गाँव की  याद आती है बहुत मेरे यार।। मिलता था माँ का प्यार सदा गाँवों में जन्नत मिला है  सदा  माँ के पाँवों में।। गाँव में  मिलता बहुत लोगों का  प्यार, शहर आते बहुत कुछ खो दिया मेरे यार। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार, गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। #  <script data-ad-client="ca-pub-6937823604682678" async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>

कविता:--- मैं एक पत्रकार हूँ।।

मैं एक पत्रकार हूँ,
बोलना सच मेरा पेशा है,
लिखना सच मिरा कर्त्तव्य है,
जानता हूँ इस दुनिया के भीड़
हमेशा मैं  अलग हूँ,
क्योंकि ये मैं जानता हूँ कि
मैं सच लिखता हूँ,
समाज की बात हमेशा करता हूँ,
जन-जन के बारे में सोचता हूँ,
शहर में इक भी घटना जब
घटित होती है परेशान रहता हूँ,
अंतर्मन से चिंतित रहता हूँ,
हाँ मैं भी आम इंसान हूँ,
लेकिन जन की दुःख देखकर
हमेशा व्यथित रहता हूँ,
जानता हूं सच बोलना,
सच लिखना नहीं है आसान,
क़दम- क़दम पे बुराई सुनना पड़ेगा
तो कहीं किसी मोड़ पर अच्छाई,
बेशक सबसे अलग हूँ मैं,
क्योंकि मैं जनहित की बात करता हूँ,
स्वभाविक है मेरा सबसे अलग होना,
हर चीज़ और विषयों की गहराई
को ख़ुद मैं समझता हूँ,
राहों के चुनौतियों से भी अवगत हूँ
हाँ बेशक! मैं अलग हूँ सबसे,
क्योंकि आँखों में अंगारें जलाने का आदी हूँ,
यह जीवन है क्या?
जनहित का करता हूँ निडर होकर काम,
तभी लोग जानते हैं सब लोग मेरा नाम,
खतरों से खेलना ही पेशा है,
एक ईमानदार और कुशल पत्रकार का,
जानता हूँ अलग हूँ सबसे
क्योंकि मैं अपने कर्त्तव्यों, वसूलों और
सिद्धांतों पर हमेशा चलता हूँ,
समय जब नहीं कटता,
फिर भी कट जाता है समय,
इस संसार में अपने कर्मों को सर्वोपरि मानता हूँ,
हाँ!क्योंकि मैं सच लिखता हूँ,
अंज़ाम जानता हूँ सच लिखने की,
चुकानी पड़ती है बहुत बड़ी क़ीमत,
लेकिन लिखना ही मेरी आदतन है,
ये सच है! सच्चाई का मार्ग आसान नहीं,
कितने पतंगें राहों में कट जाती हैं,
कितने अपनों से,समाज से, राष्ट्र के लोगों से,
ख़ुद को अलग करना पड़ता है,
उनसे एक तरह से कटना पड़ता है।
सच लिखना है नहीं उतना भी आसान,
अपनों से भी कटना पड़ता है,
छोड़ना पड़ता है अपनी कई इच्छाओं को,
झोंकना पड़ता है आग की तपती भंठियों में,
कितने मालिकों, हुक्मरानों की जेब कट जाती है,
दहशत पैदा होती है उनमें,
जुबां बंद जाती हैं भ्रष्ट और मठाधीशों के,
हाँ!ये सच है! मैं सच लिखता हूँ,
किसी का अगर कट रहा है अपनों के बीच
तो वो हमेशा खुशनसीब हैं,
समाज के दर्दों,वेदनाओं को समेटकर
अपने ख़ुद के अंदर रखना और चलना
उतना भी ज़माने नहीं है आसान,
हाँ!ये सच है कि मैं सच लिखता हूँ,
हाँ! जानता हूँ  मैं एक पत्रकार हूँ।।

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