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हिंदी कविता : गांव की यादें // गौरव झा

  GAURAV JHA  ( Journalist, Writer & Columnist ) चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार  गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। सिखता आ रहा हूँ,बहुत कुछ गाँवों में रहता हूँ,हर वकत बुजुर्गो के छाँवों में। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार गाँव की  याद आती है बहुत मेरे यार।। मिलता था माँ का प्यार सदा गाँवों में जन्नत मिला है  सदा  माँ के पाँवों में।। गाँव में  मिलता बहुत लोगों का  प्यार, शहर आते बहुत कुछ खो दिया मेरे यार। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार, गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। #  <script data-ad-client="ca-pub-6937823604682678" async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>

आलेख:--- विश्व पटल पर पहचान दिला रही है हिंदी

।     Gaurav Jha
    (Writer, Journalist, columnist) 
  [ This article is published by shail shutra    magazine]
भारत की भाषायी स्थिति और उसमें हिंदी के स्थान को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी आज भारतीय जनता के बीच राष्ट्रीय संपर्क की भाषा है। हिंदी की भाषागत विशेषता भी यह है कि उसे सीखना और व्यवहार में लाना अन्य भाषाओं के अपेक्षा ज्यादा सुविधाजनक और आसान है। हिंदी भाषा में एक विशेषता यह भी है कि वह लोक भाषा की विशेषताओं से संपन्न है, बड़े पैमाने पर अशिक्षित लोचदार भाषा है, जिससे वह दूसरी भाषाओं में शब्दों, वाक्य-संरचना और बोलचाल जन्य स्वीकार करने में समर्थ है। इसके अलावा ध्यान देने की बात यह है कि हिंदी में आज विभिन्न भारतीय भाषाओं का साहित्य लाया जा चुका है। विभिन्न भारतीय भाषाओं के लेखकों को हिंदी के पाठक जानते हैं, उनके बारे में जानते हैं। भारत की भाषायी विविधता के बीच हिंदी की भाषायी पहचान मुख्यत: हिंदी है। भारत के औद्योगिक प्रतिष्ठानों के आधार पर बने नगरों और महानगरों में भारत की राष्ट्रीय एकता और सामाजिक संस्कृति का स्वरूप देखने को मिलता है। इसी पं्रसग में कहना चाहता हूं कि यदि हिंदी-क्षेत्र के राज्य औद्योगिक रूप से और ज्यादा विकसित होते तो राष्ट्रीय एकता और भाषायी एकता का आधार और विस्तृत और मजबूत होता। लेकिन आज की स्थिति में भी भारत में हिंदी की जो राष्ट्रीय भूमिका है, उतना भी उसके अंतरराष्ट्रीय महत्व को महसूस कराने में समर्थ है।
     साम्राज्यवाद ने खुद मनुष्य का जो व्यापार अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में किया, उसके फलस्वरूप भारत से बड़ी तादाद में मजदूर दूसरे देशों में ले जाए गए। मारिशस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, के अन्य कई देश, ब्रिटिश गायना, त्रिनिडाड, सूरीनाम, न्यूजीलैंड आदि देशों में जो बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग हैं, वे मुख्यत: हिंदीभाषी हैं अथवा यह कहें कि वे हिंदी जानते हैं, हिंदी पढ़ते-लिखते हैं। नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार (वर्मा) में तो स्वभावत: हिंदी भाषी जनता की संख्या बहुत बड़ी हैं आधुनिक युग में नई संचार-व्यवस्था, आवागमन के नए साधनों की उपलब्धता और जीवन की नई जरूरतों से प्रेरित होकर इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस और यूरोप के अन्य अनेक देशों में भी भारत से जा बसे लोगों में हिंदीभाषी लोग आज रह रहे हैं। हिंदीभाषियों को अथवा हिंदी जानने वालों की यह विशाल संख्या हिंदी के अंतरराष्ट्रीय संपर्क का साक्षात्कार कराती है। संख्या की दृष्टि से हिंदी दुनिया की तीन बड़ी भाषाओं में एक है, शेष दो हैं अंग्रेजी और चीनी। कुछ लोग तो कहते हैं कि हिंदी जाननेवालों की संख्या दुनिया में अंग्रेजी जाननेवालों से ज्यादा है।
     आंकड़ों के खेल से अलग हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भूमिका को स्थापित करने वाले कई तथ्य और हैं ओर वे तथ्य ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। एक बात तो यह है कि हिंदी भाषा के साहित्य ने पिछली एक सदी में बड़ी तेजी से विकास किया है, वह कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना तथा चिंतनपरक साहित्य के क्षेत्रों में इतनी विकसित हुई है, इतनी ऊपर उठी है, कि आज वह किसी भी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य का मुकाबला कर सकती है। प्रेमचंद्र, निराला, जयशंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल, राहुल सांस्कृत्यायन, मुक्तिबोध, नागाजुZन आदि के लेखन के अनुवाद दुनिया की विभिन्न भाषाओं में हुए हैं। इस प्रक्रिया से हिंदी के जरिए दुनिया की जनता से भारत की जनता का संवदेनात्मक संबंध कायम हुआ है। यह संबंध रचनात्मक और संवेदनात्मक तो है ही, सांस्कृतिक विनियम का एक रूप भी प्रस्तुत करता है। विगत साहित्य में भारतीय चेतना का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक हिंदी ही करती है। इतना ही नहीं, हिंदी के माध्यम से दूसरी भाषाओं के साहित्य का परिचय भी विश्व का हिंदी-संप्रदाय प्राप्त करता है। यह एक बड़ा कारण है कि दुनियाभर में हिन्दी का अध्ययन आज वे लोग भी कर रहे हैं, जो हिंदीभाषी या भारतीय मूल के नहीं हैं। इस प्रकार आज की परिस्थिति में हिंदी की एक अंतरराष्ट्रीय बिरादरी विकसित हो रही है।
          उपयुक्त तथ्यों और बातों से अलग अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि आज के वित्तीय पूंजीवाद ने जो विशाल विश्व बाजार विकसित किया है, उसमें भारत का विशेष स्थान है। भारत में पूंजीवाद का विकास अवरोधों के बीच हुआ है, फिर भी देश के आजाद होने के बाद पूर्व सोवियत संघ तथा समाजवादी देशों की मदद से राष्ट्रीय पूंजीवाद का आर्थिक आत्मनिर्भरता का जो विकास हुआ। उससे भारत में एक बड़े मध्य वर्ग और नव धनाढ्य वर्ग का विकास हुआ है, जिसकी आबादी कम से कम पच्चीस करोड़ है। अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रतिनिधियों तथा उसके विचारकों और सिद्धांतकारों ने कुछ साल पहले भारत के बारे में एक सेमिनार आयोजित करके इस बात पर विचार किया कि भारत में उनके लिए क्या गुंजाइश है। उनका निष्कर्ष यह था कि भारत मध्यवर्ग, उच्च वर्ग और नवधनाढ्य वर्ग के पच्चीस-तीस करोड़ लोग उनके माल का बाजार बनने के लिए काफी हैं। अब यह देखें कि पच्चीस-तीस करोड़ में हिंदीभाषियों की संख्या बीस करोड़ से कम तो नहीं है। अत: इस जनता को अपना उपभोक्ता बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करनेवाली कंपनियों के प्रतिनिधियों एवं एजेंटों को हिंदी सीखनी है। यदि भारत का इतना आर्थिक विकास न हुआ होता, तो हिंदी का रुतबा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतना न होता, जितना आज हमें अनुभव होता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और इजारेदार घरानों को अपने माल के प्रचार के लिए हिंदी का सहारा लेना पड़ता है। उद्योग का एक बड़ा क्षेत्र है फिल्म और इलेक्ट्रोनिक जनसंचार माध्यम। हिंदी फिल्म और इलेक्ट्रोनिक माध्यम में हिंदी चैनल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का प्रसार करके हिंदी के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय बाजार बनाने की भूमिका अदा करते हैं। यह है हिंदी की अंतरराष्ट्रीय भूमिका का ठोस आधार, जिस पर खड़ी होकर हिंदी अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा बन रही है। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव के अवशेष और अमेरिकी साम्राज्य की वर्तमान दबंगई के कारण यह बात फैलाई जाती रही है कि अंग्रेजी विश्व भाषा है या विश्व बाजार की भाषा है। यह अर्द्धसत्य है। सच्चाई को यूँ कह सकते हैं कि अंग्रेजी एक महत्वपूर्ण विश्व भाषा है और विश्व बाजार की भी एक महत्वपूर्ण भाषा है। लेकिन विश्व बाजार में संपर्क तो चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, जर्मन, स्पानी के साथ ही हिंदी के माध्यम से भी होता है। भारत के फैलते हुए बाजार और दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के संगठन की बढ़ती हुई भूमिका की पृष्ठभूमि में हिंदी के महत्व और भूमिका में भी वृिद्ध होती जा रही है।।   वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति के इस दौर में यह उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिक-तकनीकी कर्मियों की संख्या की दृष्टि से दुनिया में भारत का तीसरा स्थान है। ये तकनीकी कमी है।ये दुनिया के विभिन्न देशों में काम करते हैं और हिंदी के प्रसार की भूमिका अदा करते हैं। लेकिन इस प्रसंग में एक बात और उल्लेखनीय है। इलेक्ट्रॉनिक संचार-माध्यम और कम्प्यूटर आदि के उपयोग में हिंदी ने धीरे-धीरे अपनी जगह बना ली है। इससे एक तरफ इन माध्यमों से हिंदी का प्रसार हो रहा है, तो दूसरी तरफ हिंंदी क्षेत्र में इलेक्ट्रोनिक यंत्रों का बाजार भी फैल रहा है। इससे हिंदी की अंतरराष्ट्रीय भूमिका मजबूत हो रही है। ये ही बातें हैं, जिनको ध्यान में रखकर वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कुछ दिन पहले कहा कि भारत को समझना है, तो हिंदी सीखो। यह हिंदी के प्रति या भारत के प्रति बुश की उदारता नहीं है, बल्कि अपनी नवउपनिवेशवादी योजना को कारगर बनाने के लिए हिंदी का उनके द्वारा इस्तेमाल किया जाना है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि हिंदी हमारे चिंतन की, हमारे सपनों की, हमारे प्रतिरोध की भाषा बनकर हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय स्वायत्तता की रक्षा की भाषा बनकर हमें ताकत देती है।               
         अंतिम बात यह है कि आज भूमंडलीयकरण यानी अमेरिकीकरण के इस दौर में एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता, संप्रभुता और विकास के साधनों की रक्षा के संघर्ष में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस संघर्ष में भारत की भूमिका के साथ हिंदी भी अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करेगी, ऐसी संभावना है। भारत सरकार में हावी नौकरशाही यद्यपि नौकरशाही यद्यपि भारत को और हिंदी को भी अपनी वाजिब भूमिका अदा करने से रोकती है, उसकी भूमिका को कुंठित करती है। इसके बावजूद जनता का और राष्ट्रीय जरूरतों के आग्रहों का दबाव नौकरशाही को नियंत्रित करता है और हिंदी की अंतरराष्ट्रीय भूमिका का उजागर करता है। 
                                         
                                       
                                                 
                                     
              











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