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हिंदी कविता : गांव की यादें // गौरव झा

  GAURAV JHA  ( Journalist, Writer & Columnist ) चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार  गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। सिखता आ रहा हूँ,बहुत कुछ गाँवों में रहता हूँ,हर वकत बुजुर्गो के छाँवों में। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार गाँव की  याद आती है बहुत मेरे यार।। मिलता था माँ का प्यार सदा गाँवों में जन्नत मिला है  सदा  माँ के पाँवों में।। गाँव में  मिलता बहुत लोगों का  प्यार, शहर आते बहुत कुछ खो दिया मेरे यार। चाहे चले जाओ,गर सात समुद्र पार, गाँव की याद आती है बहुत मेरे यार।। #  <script data-ad-client="ca-pub-6937823604682678" async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>

आलेख // साहित्य समाज का आईना है //गौरव झा

।   GAURAV JHA
  ( Journalist, Writer, Columnist )

साहित्य समाज का दर्पण है । एक साहित्यकार समाज की वास्तविक तस्वीर को सदैव अपने साहित्य में उतारता रहा है । मानव जीवन समाज का ही एक अंग है  मनुष्य परस्पर मिलकर समाज की रचना करते हैं । इस प्रकार समाज और मानव जीवन का संबंध भी अभिन्न है । समाज और जीवन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । आदिकाल के वैदिक ग्रंथों व उपनिषदों से लेकर वर्तमान साहित्य ने मनुष्य जीवन को सदैव ही प्रभावित किया है ।आज अपने देश के साहित्यकार के सामने भी एक विकट समस्या है कि लोग साहित्य से दिन-प्रतिदिन दूर होते जाते जा रहे हैं।जिस साहित्य के सहारे हमारा राष्ट्र का विकास संभव है।आज विलुप्त होती दिख रही है। खासकर छोटे-छोटे बच्चों पर दिन-प्रतिदिन बुरा प्रभाव पड़ रहा है।दर असल जिस बाल साहित्य को बच्चे कभी ध्यान से पढ़ते थे।आज परिस्थिति बिल्कुल अलग दिख रही है। साहित्यकारों को भी चाहिए,मंच से अलग हटकर कुछ ऐसी कविताएं, कहानियां लिखें।जिससे साहित्य के प्रति बच्चों का रूझान बढ़े। आज मनोरंजन से कहीं हटकर कार्य करने की जरुरत है।जिसे पढ़कर छोटे-छोटे बच्चों को कुछ सीख मिल सके।जिससे उसका शारीरिक विकास होने के साथ-साथ मानसिक विकास भी हो।इसके लिए साहित्यकारों को सम्मान पाने से ऊपर उठकर निस्वार्थ काम करने की जरूरत है।तभी हम बेहतर समाज की कल्पना कर सकते हैं।न जाने आजादी के लड़ाई से लेकर अभी तक कितने क्रान्तिकारी साहित्यकार हुए हैं।चाहे वो राष्ट्रकवि दिनकर हो,चाहे हरिवंश राय बच्चन, माखनलाल चतुर्वेदी आदि कई अनगिनत नाम आज भी जीवंत है।जिन्होंने देश की सेवा,समाज के उत्थान में सदा निस्वार्थ योगदान रहा है।आज साहित्य की गरिमा को बचाना हम सब का ही कर्त्तव्य है।
           दूसरे शब्दों में, किसी भी काल के साहित्य के अध्ययन से हम तत्कालीन मानव जीवन के रहन-सहन व अन्य गतिविधियों का सहज ही अध्ययन कर सकते हैं या उसके विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । एक अच्छा साहित्य मानव जीवन के उत्थान व चारित्रिक विकास में सदैव सहायक होता है ।
         साहित्य से उसका मस्तिष्क तो मजबूत होता ही है साथ ही साथ वह उन नैतिक गुणों को भी जीवन में उतार सकता है जो उसे महानता की ओर ले जाते हैं । यह साहित्य की ही अद्‌भुत व महान शक्ति है जिससे समय-समय पर मनुष्य के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं ।
         साहित्य ने मनुष्य की विचारधारा को एक नई दिशा प्रदान की है । दूसरे शब्दों में, मनुष्य की विचारधारा परिवर्तित करने के लिए साहित्य का आश्रय लेना पड़ता है । आधुनिक युग के मानव जीवन व उनसे संबंधित दिनचर्या को तो हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं परंतु यदि हमें प्राचीन काल के जीवन के बारे में अपनी जिज्ञासा को पूर्ण करना है तो हमें तत्कालीन साहित्य का ही सहारा लेना पड़ता है ।
        वैदिक काल में भारतीय सभ्यता अत्यंत उन्नत थी । हम अपनी गौरवशाली परंपराओं पर गर्व करते हैं । तत्कालीन साहित्य के माध्यम से हम मानव जीवन संबंधी समस्त जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तथा उन जीवन मूल्यों का अध्ययन कर सकते हैं जिन्हें आत्मसात् करके तत्कालीन समाज उन्नत बना ।
        इस प्रकार जीवन और साहित्य का अटूट संबंध है । साहित्यकार अपने जीवन में जो दु:ख, अवसाद, कटुता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, दया आदि का अनुभव करता है उन्हीं अनुभवों को वह साहित्य में उतारता है । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी देश में घटित होता है जिस प्रकार का वातावरण उसे देखने को मिलता है उस वातावरण का प्रभाव अवश्य ही उसके साहित्य पर पड़ता है ।यदि हम इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि साहित्यकार के क्रांतिकारी विचारों ने राजाओं-महाराजाओं को बड़ी-बड़ी विजय दिलवाई है । अनेक ऐसे राजाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने स्वयं तथा अपनी सेना के मनोबल को उन्नत बनाए रखने के लिए कवियों व साहित्यकारों को विशेष रूप से अपने दरबार में नियुक्त किया था ।
        मध्यकाल में भूषण जैसे वीररस के कवियों को दरबारी संरक्षण एवं सम्मान प्राप्त था । बिहारीलाल ने अपनी कवित्व-शक्ति से विलासी महाराज को उनके कर्तव्य का भान कराया था । संस्कृत के महान साहित्यकारों कालीदास और बाणभट्‌ट को अपने राजाओं का संरक्षण प्राप्त था ।
      ” नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहिं काल । अली, कली सी सौं बँध्यो आगैं कौन हवाल ।” इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवन और साहित्य को पृथक् नहीं किया जा सकता । उन्नत साहित्य जीवन को वे नैतिक मूल्य प्रदान करते हैं जो उसे उत्थान की ओर ले जाते हैं । साहित्य के विकास की कहानी वास्तविक रूप में मानव सभ्यता के विकास की ही गाथा है ।
    जब हमारा देश अंग्रेजी सत्ता का गुलाम था तब साहित्यकारों की लेखनी की ओजस्विता राष्ट्र के पूर्व गौरव और वर्तमान दुर्दशा पर केंद्रित थी । इस दृष्टि से साहित्य का महत्व वर्तमान में भी बना हुआ है । आज के साहित्यकार वर्तमान भारत की समस्याओं को अपनी रचनाओं में पर्याप्त स्थान दे रहे हैं ।



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